कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥7॥
कार्पण्य-दोष-कायरता का दोष; उपहत-ग्रस्त; स्वभावः-प्रकृति, पृच्छामि-मैं पूछ रहा हूँ; त्वाम्-तुमसे; धर्म-कर्त्तव्य; सम्मूढ-व्याकुल; चेताः-हृदय में; यत्-जो; श्रेयः-श्रेष्ठ; स्यात्-हो; निश्चितम् निश्चयपूर्वक; ब्रूहि-कहो; तत्-वह; मे-मुझको; शिष्यः-शिष्य; ते तुम्हारा; अहम्-मैं; शाधि-कृपया उपदेश दीजिये; माम्-मुझको; त्वाम्-तुम्हारा; प्रपन्नम् शरणागत।
BG 2.7: मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ और गहन चिन्ता में डूब कर कायरता दिखा रहा हूँ। मैं आपका शिष्य हूँ और आपके शरणागत हूँ। कृपया मुझे निश्चय ही यह उपदेश दें कि मेरा हित किसमें है।
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भगवद्गीता का यह क्षण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। जब प्रथम बार अर्जुन, जो श्रीकृष्ण के परम मित्र और चचेरे भाई थे, भगवान श्रीकृष्ण को अपना गुरु बनने की प्रार्थना करते हैं। अर्जुन श्रीकृष्ण के सम्मुख यह स्वीकार करते हैं कि उन पर 'कार्पण्यदोष' हावी हो गया है या उनका आचरण कायरों जैसा हो गया है और इसलिए वह श्रीकृष्ण को अपना गुरु बनने और उन्हें धर्म के पथ पर चलने का उपदेश देने के लिए निवेदन करते हैं। सभी वैदिक ग्रन्थ एक स्वर से घोषणा करते हैं कि आध्यात्मिक गुरु के द्वारा ही हमें अपने आत्मकल्याण के लिए दिव्य ज्ञान प्राप्त होता है।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।।
(मुण्डकोपनिषद्-1.2.12)
"परम सत्य को जानने के लिए गुरु की खोज करनी होगी, जो वेदादि शास्त्रों का ज्ञाता हो और जो व्यावहारिक रूप से परब्रह्म में स्थित हो चुका हो।"
तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्।
शाब्दे पर च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।।
(श्रीमद्भागवतम्-11:3:21)
"सत्य की खोज करने वालों को अध्यात्मिक गुरु के प्रति पूर्ण शरणागत होना चाहिए जो वैदिक ग्रन्थों के सार को भलीभांति समझता है और भौतिक संसार की उपेक्षा कर भगवान के पूर्ण शरणागत होता है" रामचरितमानस में वर्णन किया गया है:
गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई।
जौं बिरंचि संकर सम होई।
"यहाँ तक कि आध्यात्मिक ज्ञान में उन्नत साधक भी बिना गुरु की कृपा के इस मायारूपी संसार को पार नहीं कर सकते।" श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता के श्लोक संख्या 4.34 में वर्णन किया है-"सत्य को जानने के लिए गुरु की शरण में जाओ, श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करो और उनसे तत्त्व ज्ञान प्राप्त करो। ऐसा सिद्ध संत महापुरुष आपको ज्ञान देगा क्योंकि वह यथार्थ को जानता है।" ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की शरण में जाने की अनिवार्यता सिद्ध करने के लिए श्रीकृष्ण भी गुरु की शरण में गए थे। अपनी युवावस्था में श्रीकृष्ण चौसठ कलाओं की विद्या प्राप्त करने के लिए सांदीपनि गुरु के आश्रम में रहे। श्रीकृष्ण के सहपाठी सुदामा ने इस विषय पर निम्न प्रकार से टिप्पणी की है।
यस्यच्छन्दोमयं ब्रह्म देह आवपनं विभो।
श्रेयसां तस्य गुरुषु वासोऽत्यन्तविडम्बनम्।।
(श्रीमद्भागवतम् 10:80:45)
"हे श्रीकृष्ण! वेद आपके शरीर के समान हैं, इनमें प्रकट ज्ञान आप ही हैं। इसलिए आपको गुरु बनाने की क्या आवश्यकता पड़ी, फिर भी यदि आप गुरु से शिक्षा प्राप्त करने का अभिनय कर रहे हो तो यह केवल आपकी दिव्य लीला है।" वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण जगत् के आदि गुरु हैं क्योंकि वे भौतिक संसार में सबसे पहले जन्मे ब्रह्माजी के भी गुरु हैं। उन्होंने हमारे कल्याण के लिए यह लीला रची और अपने इस दृष्टांत द्वारा हमें शिक्षित किया कि हमारी आत्मा पर माया हावी है और अज्ञान को दूर करने के लिए हमें गुरु की आवश्यकता है। इस श्लोक में अर्जुन एक शिष्य के रूप में श्रीकृष्ण के समक्ष आत्मसर्मपण कर उन्हें अपना गुरु स्वीकार करते हुए उसे उचित मार्ग दिखाने के लिए ज्ञान प्रदान करने की प्रार्थना करता है।